Friday, September 23, 2016
Monday, September 5, 2016
Jarga Ji (मेघवंशी जरगा जी)
धन दौलत ना चाहिए , ना चाहिए घर -बार।
केवल जरगा नाम हो , अलख का आधार ॥
-:जय मेघ महा धर्म :-
अरावली पर्वत श्रृंखला में मेघवंश भक्त शिरोमणि जरगाजी की कर्मभूमि हैं।
करीब दो हज़ार वर्ष पूर्व ज्येष्ठ सुदी बीज़ शनिवार (चन्द्रावली बीज ) के दिन गाँव गायफल, पं. स.- सायरा, तहसील- सायरा ,जिला-उदयपुर (राजस्थान ) मेघवाल परिवार में हुआ।
जरगाजी जब थोड़े बड़े हुए तब उनकी सगाई ग्राम- काकरवा(कुम्भलगढ़ ) में तय की, दरगाजी की बारात पहुँची, तब दरगाजी ने शादी से इनकार कर दिया, जिन कन्या के साथ उनकी शादी होनी थी उसे धर्म की बहिन बना दी और वहाँ से खाली बारात वापस घर लौट आयें ।
उस समय के पश्चात् उनका मन भक्ति-भाव में लग गया और घर-बार छौड़कर अलख-धणी की तपस्या में निकल गए और विक्रम संवत ११३ में अलख-धणी प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा तो भक्तराज जरगाजी ने उत्तर दिया "धाम धणियो की और नाम जरगा मांगा"।
तब अलख भगवान् ने कहा हे भक्तराज ! आज से मेरे नाम से आगे तेरा नाम आयेगा तथास्तू आज से जळगा रा धणी (जरगा रा धणी ) नाम से पुकारा जाएगा और अंतर ध्यान हो गए।
इसीलिए आज भी कहते हैं जरगा रा धणी
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अलख धणी की सेवा जेमली दिनांक- 01 मार्च 2022 |
नमस्कार आप सभी मित्रों के बीच में मैं एक जानकारी प्रस्तुत करना चाहता हूं, मेघवाल समाज के मंदिरों में मार्बल पत्थर पर बने पद चिन्हों के अलावा कपड़े का बिना सवार का घोड़ा विस्थापित होता है, इसी प्रकार मेघवाल समाज के बच्चे स्त्री-पुरुष कोई भी अपने गले में लॉकेट या फुल पहनते हैं, जिस पर पदचिन्ह या बिना सवार का घोड़ा बना हुआ होता है बहुत सी जानकारी के अनुसार यह घोड़ा रामसापीर का बताते हैं, मैं उनसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं क्योंकि रामसा पीर का इतिहास मात्र 600 साल पुराना ही है तो यह बताओ यह घोड़ा रामसा पीर का कैसे हुआ?? बिना सवार के घोड़े की पूजा-अर्चना रामसापीर के जन्म से पूर्व भी की जाती है लेकिन सच्चाई यह है कि बिना सवार का घोड़ा मेघराजाओं का प्रतीक धार्मिक मान्यता का प्रतीक है और उसी मान्यता को संजोए रखने के लिए मेघवाल समाज अपने गले में ऐसे फूल धारण करता रहा है और मंदिरों में भी बिना सवाल के घोड़े की पूजा करता आ रहा है जिसे बाद में रामसा पीर का प्रतीक बता दिया। यह प्रत्येक तो मेघवंश का विरासत है क्योंकि मैं एक शासक बुद्ध के अनुयाई थे । इसलिए बुद्ध के पदचिन्हों की पूजा की तरह बिना सवार का घोड़ा का मेक शासक अलख धणी का हैं इसलिए बुद्ध के पदचिन्हों की पूजा की जाती है जिन्हें अलख धणी की पूजा भी कहा जाता है। भगवान बुद्ध मानव कल्याण के लिए संपूर्ण मानव जगत को दुःख दूर करने का रास्ता बताने के लिए राज्य से जीवन को त्याग कर ज्ञान प्राप्ति के लिए निकले थे। अपने अपने घोड़े का सवार होकर निकले थे, विश्व इतिहास की एक अति महत्वपूर्ण घटना को महाभिनिष्क्रमण कहते हैं। महात्मा बुद्ध शाक्य वंश के थे।
अपने राज्य की सीमा पार करने के बाद सारे राज्य वस्त्र गहने आदि त्यागकर केश तलवार से काट दिए थे। इस समय उन्होंने उस प्रिय घोड़े कंथक को अपने साथ के छन्न को सौंप दिया था, ताकि वह वापस कपिलवस्तु चला जाए। सारथी छन्न सिद्धार्थ को बहुत सम्मान देता था और इसीलिए वह बुद्ध के घोड़े और सवार होकर कपिलवस्तु की ओर लौटने के बजाय पैदल लौटा।
बिना सवार का घोड़ा भगवान बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का प्रतीक बन गया तथागत गौतम बुद्ध ने अपने जीवन की इस अति महत्वपूर्ण घटना को श्रद्धा एवं सम्मान प्रदर्शित करने के लिए बुद्ध अनुयाई द्वारा विपिन बौद्ध विहारों और स्तूप मैं बिना सवार के घोड़े को उत्कीर्ण किया गया। यह प्रतीक चिन्ह सम्राट अशोक सम्राट कनिष्क और मेघवाल शासन काल तक बहुत ही प्रभावी रूप से दिखाई देता हैं।
इसके बाद तथा महायान के उदय होने के बाद भी इस पवित्र प्रतीक के उत्पीड़न श्रद्धा में कोई कमी हमें नहीं दिखाई देती है बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा आज भी इसे अपना धार्मिक प्रतीक चिन्ह बना हुआ है अतः यह स्पष्ट है कि यह मेघवंशी समाज के आराध्य स्थलों मैं रामदेव जी से पहले भी बिना सवार के घोड़े वह पदचिन्हों की पूजा की जाती है जो बौद्ध धर्म के प्रतीक चिन्ह है आजकल बाबा रामसापीर के चित्र लोकप्रिय है जिसमें घोड़े पर स्वयं रामदेवजी सवार है तथा आपके आसपास मौजूद शक्तियों का चित्रण किया गया है वह भी सिद्धार्थ के राजसी सी जीवन को त्याग कर जाते समय की नकल सी लगती है।
गांधार शैली की पत्थर पर पर उत्कृष्ट यह कलाकृति पाकिस्तान के लाहौर म्यूजियम में आज भी सुरक्षित है, साथ ही धार्मिक स्थल रामदेव जी के मंदिर में बिना सवार के घोड़े पत्थर पर बने चिन्ह नजर आते हैं उदयपुर शहर के सायरा के पास जेमली गांव में बिना सवार और घोड़ा पद चिंह हैं।
यह लगभग 2000 साल पूर्व का है जब बौद्धिष्ट अलख गमन करते हुऐ, जरगाजी से मिले थे।
आज से करीबन 2000 वर्ष पूर्व जब अलख धणी जरगाजी से मिले थे, तो ढोल गाँव होते हुए, कमोल गांव के जरगा अम्बा से जेमली आये थे और वहां से जरगाजी पंहुचे, इस कारण जेमली में आज भी पत्थर पर घोड़े के पाँव का निशान हैं। आज भी ढोल गांव से रामदेवजी की सेवा आती है, रामदेवजी से पूर्व यहाँ पगलिया लेकर आते थे और जेमली से जरगाजी जाते थे।
परपंरा के अंतर्गत ढोल की सेवा जेमली से होकर जरगाजी पहुंचती हैं, इस वर्ष भी ढोल गांव की सेवा 16 फरवरी 2023 को रवाना होगी और 16 फरवरी 2023 की रात को कमोल (जरगा आंबा) रुकेगी, कमोल से रवाना होकर 17 फरवरी 2023 जेमली में रुकेगी और 18 फरवरी 2023 जेमली से गायफल होकर जरगाजी पहुंचेगी।
अपने राज्य की सीमा पार करने के बाद सारे राज्य वस्त्र गहने आदि त्यागकर केश तलवार से काट दिए थे। इस समय उन्होंने उस प्रिय घोड़े कंथक को अपने साथ के छन्न को सौंप दिया था, ताकि वह वापस कपिलवस्तु चला जाए। सारथी छन्न सिद्धार्थ को बहुत सम्मान देता था और इसीलिए वह बुद्ध के घोड़े और सवार होकर कपिलवस्तु की ओर लौटने के बजाय पैदल लौटा।
बिना सवार का घोड़ा भगवान बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का प्रतीक बन गया तथागत गौतम बुद्ध ने अपने जीवन की इस अति महत्वपूर्ण घटना को श्रद्धा एवं सम्मान प्रदर्शित करने के लिए बुद्ध अनुयाई द्वारा विपिन बौद्ध विहारों और स्तूप मैं बिना सवार के घोड़े को उत्कीर्ण किया गया। यह प्रतीक चिन्ह सम्राट अशोक सम्राट कनिष्क और मेघवाल शासन काल तक बहुत ही प्रभावी रूप से दिखाई देता हैं।
इसके बाद तथा महायान के उदय होने के बाद भी इस पवित्र प्रतीक के उत्पीड़न श्रद्धा में कोई कमी हमें नहीं दिखाई देती है बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा आज भी इसे अपना धार्मिक प्रतीक चिन्ह बना हुआ है अतः यह स्पष्ट है कि यह मेघवंशी समाज के आराध्य स्थलों मैं रामदेव जी से पहले भी बिना सवार के घोड़े वह पदचिन्हों की पूजा की जाती है जो बौद्ध धर्म के प्रतीक चिन्ह है आजकल बाबा रामसापीर के चित्र लोकप्रिय है जिसमें घोड़े पर स्वयं रामदेवजी सवार है तथा आपके आसपास मौजूद शक्तियों का चित्रण किया गया है वह भी सिद्धार्थ के राजसी सी जीवन को त्याग कर जाते समय की नकल सी लगती है।
गांधार शैली की पत्थर पर पर उत्कृष्ट यह कलाकृति पाकिस्तान के लाहौर म्यूजियम में आज भी सुरक्षित है, साथ ही धार्मिक स्थल रामदेव जी के मंदिर में बिना सवार के घोड़े पत्थर पर बने चिन्ह नजर आते हैं उदयपुर शहर के सायरा के पास जेमली गांव में बिना सवार और घोड़ा पद चिंह हैं।
यह लगभग 2000 साल पूर्व का है जब बौद्धिष्ट अलख गमन करते हुऐ, जरगाजी से मिले थे।
आज से करीबन 2000 वर्ष पूर्व जब अलख धणी जरगाजी से मिले थे, तो ढोल गाँव होते हुए, कमोल गांव के जरगा अम्बा से जेमली आये थे और वहां से जरगाजी पंहुचे, इस कारण जेमली में आज भी पत्थर पर घोड़े के पाँव का निशान हैं। आज भी ढोल गांव से रामदेवजी की सेवा आती है, रामदेवजी से पूर्व यहाँ पगलिया लेकर आते थे और जेमली से जरगाजी जाते थे।
परपंरा के अंतर्गत ढोल की सेवा जेमली से होकर जरगाजी पहुंचती हैं, इस वर्ष भी ढोल गांव की सेवा 16 फरवरी 2023 को रवाना होगी और 16 फरवरी 2023 की रात को कमोल (जरगा आंबा) रुकेगी, कमोल से रवाना होकर 17 फरवरी 2023 जेमली में रुकेगी और 18 फरवरी 2023 जेमली से गायफल होकर जरगाजी पहुंचेगी।
19 फरवरी 2023 को जरगाजी मेला भरेगा।।
परपंरा के अंतर्गत ढोल की सेवा जेमली से होकर जरगाजी पहुंचती हैं, इस वर्ष भी ढोल गांव की सेवा 23 फरवरी 2025 को रवाना होगी और 23 फरवरी 2025 की रात को कमोल (जरगा आंबा) रुकेगी, कमोल से रवाना होकर 24 फरवरी 2025 रात्रि जेमली में रुकेगी और 25 फरवरी 2025 जेमली से गायफल होकर जरगाजी पहुंचेगी।
नया स्थान मेला – 27 फरवरी 2025
जूना स्थान मेला – 26 फरवरी 2025
नोट :-जरगाजी पहाड़ में रघुनाथ पीर का परचा और इतिहास कृपया फोटो में देखें। और अधिक जानकारी के लिए कृपया मुझसे संपर्क करें।
जरगाजी का इतिहास रामदेवजी इतिहास से बहुत पुराना हैं।
प्रकाशमान सिंह बावल बौद्ध
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